Rabindranath Tagore
यही नरेंद्र अब करुणा का संगी था। करुणा नरेंद्र के साथ उसी तालाब के किनारे माटी के घरौंदे बनाती, फूलों की माला गूँथती और पिता से सुनी हुई सारी कहानियाँ नरेंद्र को सुनाया करती। कल्पना में विचरण करने वाली उस बालिका की सारी कल्पनाएँ अब नरेंद्र को निछावर हो गईं। करुणा नरेंद्र को इतना अधिक चाहने लगी कि थोड़ी देर के लिए भी उसे न पाकर विचलित हो उठती। नरेंद्र के पाठशाला चले जाने पर वह उस बुलबुल को हाथ में लेकर अपने घर के दरवाजे पर उसकी प्रतीक्षा किया करती। नरेंद्र को दूर से देखते ही वह दौड़ी चली आती और उसका हाथ थामे उसी तालाब के किनारे खड़े एक नारियल के पेड़ की छाँव तले ले जाती, जहाँ वह अपनी कल्पना से गढ़ी हुई कितनी ही विचित्र कहानियाँ उसे सुनाया करती।