Rabindranath Tagore
अपनी उस हिंदू दासी से मैं हिंदू-धर्म के सारे आचार-व्यवहार और देवी-देवताओं की आश्चर्यजनक कथा-कहानियाँ, ’रामायण’ और ’महाभारत’ का सारा-का-सारा अनोखा इतिहास, शंका-समाधानों के साथ अच्छी तरह सुनती। सुनते-सुनते अपने उस घर के कोने में भी हिंदू संसार का एक दृश्य मेरे मन के सामने नाचने लगता। मूर्ति और प्रतिमूर्ति, शंख और घंटों की ध्वनि, सोने के कलशों से सुशोभित देव-मंदिर, धूप का सुगंधित धुआँ, अगरू-चंदन मिली फूलों की सुगंध, योगी-संन्यासियों की अलौकिक शक्ति, ब्राह्मणों का लोकोत्तर माहात्म्य, मनुष्य के भेष में देवताओं की विचित्न-लीला-ये सब मिलकर मेरे सामने एक बहुत प्राचीन, और बहुत ही फैले हुए बेहद दूर के अस्वाभाविक माया-लोक की रचना कर देते। मेरा मन मानो घोंसला खोए हुए पक्षी की तरह संध्या-रूपी किसी बड़े भारी पुराने महल की छोटी-मोटी कोठरियों में उड़ा-उड़ा फिरता। हिंदू-संसार मेरे उस लड़कपन भरे दिल के लिए एक बहुत ही रोचक ’परियों की कहानी’ का भंडार-सा बन गया था।