Tittli

Tittli

Jaishankar Prasad

16,56 €
IVA incluido
Disponible
Editorial:
Repro India Limited
Año de edición:
2025
ISBN:
9789356824751
16,56 €
IVA incluido
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चार्टली साहब की नील-कोठी टूट चुकी थी। नील का काम बंद हो चला था। जैसा आज भी दिलाई देता है, तब ’भी उस गोदाम के हौज और पक्की नालियां अपना खाली मुंह खोले पड़ी रहती थी, जिससे नीम की छाया में गाए बैठकर विभाग लेती थीं। पर बार्टली साहब को वह ऊंचे टीले का बंगला, जिसके नीचे बड़ा-सा ताल था, बहुत ही पसंद था। नील गोदाम बंद हो जाने पर भी उनका बहुत-सा रुपया दादनी में फसा था। किसानों को नील बोना तो बंद कर देना पड़ा, पर रुपया देना ही पड़ता। अन्न की खेती से उतना रुपया कहां निकलता, इसलिए आस-पास के किसानों में बड़ी हलचल मची थी। बार्टली के किसान आसामियों में एक देवनन्दन भी थे। मैं उनका आश्रित ब्राह्मण था। मुझे अन्न मिलता था और में काशी में जाकर पढ़ता था। काशी की उन दिनों की पंडित-मंडली में स्वामी दयानन्द के आ जाने से हलचल मची हुई थी। दुर्गाकुंड के उस शास्त्रार्थ में मैं भी अपने गुरुजी के साथ दर्शक-रूप से था; जिसमें स्वामीजी के साथ बनारसी चाल चली गई थी। ताली तो मैंने भी पीट दी थी। मैं क्वीन्स कॉलेज के एग्लो-संस्कृत विभाग में पढ़ता था। मुझे वह नाटक अच्छा न लगा। उस निर्भीक संन्यासी की ओर मेरा मन आकर्षित हो गया। वहां से लौटकर गुरुजी से मेरी कहा-सुनी हो गई, और जब मैं स्वामीजी का पक्ष समर्थन करने लगा, तो गुरुजी ने मुझे नास्तिक कहकर फटकारा। -इसी पुस्तक से

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